चीन के समाज और संस्कृति का आख्यान
चीन के समाज और संस्कृति का आख्यान
वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहे चीन पर दुनिया भर की नजर है, दुनिया भर के बाजारों में उसके सामान छाए
हुए हैं और तीसरी दुनिया के देश तो उससे भरे पड़े हैं। सस्ते दामों में सामानों को
उपलब्ध कराने का चीनी विकल्प शायद ही अभी किसी और देश के पास उलब्ध हो,
ऐसे में
चीन को लेकर लोगों में बहुत अधिक जिज्ञासाएँ है, लोग उनकी धरोहरों, विकास और परंपरागत मूल्यों, रोजगार, शिक्षा, पर्यटन, परिवहन सुविधाओं, स्त्रियों की स्थिति आदि को जानने के लिए
बेहद उत्सुक रहते हैं। इन विषयों को केंद्र में रखकर हिंदी के वरिष्ठ आलोचक अनिल राय
ने कई महत्वपूर्ण संस्मरण लिखे हैं। जिनका संकलन ‘माओ के देश में’ नाम से प्रकाशित हुआ है। ‘माओ के देश में’ लेखक के ढ़ाई वर्षो के पीकिंग विश्वविद्यालय
के प्रवास के दिनों की कहानी है। जिसमें
उन्होंने चीन के अलग बिंदुओं पर विचार किया है। ढ़ाई वर्ष किसी भी देश की संस्कृति, परंपरा
और उस पूरे समाज को समझने के लिए तो बहुत कम है, फिर भी लेखक ने उस समाज की संस्कृति, परंपरा और प्रसिद्ध
स्थलों के ऐतिहासिक महत्व के साथ साथ भारत की स्थितियों से तुलना करने का जोखिम उठाया
है। इस पुस्तक में कुल इक्तीस
संस्मरण शामिल
हैं, जो अलग अलग बिंदुओं को अपने में समाहित किये हुये है।
इसे देखें- https://sahityikduniyaa.blogspot.com/2021/01/aadiwasi.html
भारत और चीन
की प्राचीनता सर्वविदित है,
प्राचीन समय से ही दोनों देशों के मध्य
व्यापार होता रहा है,
समुद्री मार्गों की खोज से पहले चीन और
यूरोप के व्यापार भारतीय मार्गों से ही होते रहें। फाह्यान और ह्वेनसांग की यात्रा
तो विश्व प्रसिद्ध है। ऐसे में भारत-चीन की प्राचीन स्थिति और उनके संबंधों पर टिप्पणी
करते हुए लेखक ने लिखा है कि,
‘बौद्ध धर्म और दर्शन से लेकर फाह्यान-इत्सिंग की यात्राओं तथा व्यापार व्यवसाय तक
महती भूमिका रही है।
चीन के रेशमी वस्त्र दुनियाभर में प्रसिद्ध
रहे हैं कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् तक में उसका उल्लेख मिलता है प्रसिद्ध विद्वान
प्रोफेसर प्रबोध चंद्र बागची ने अपनी पुस्तक इंडिया एंड चाइना थाउजेंड ईयर्स आफ कल्चरल
रिलेशंस में इस बात का संकेत किया है कि भारत और चीन के बीच बौद्ध धर्म और व्यापार
में स्थित का काम किया है ऐसे तो आज भी किसी ना किसी रूप में कायम है|’
भारत
मंदिरों और देवी-देवताओं का देश है, शायद ही इतने देवी देवताओं की कल्पना विश्व के
किसी और देश में हो किन्तु मंदिरों के नाम पर लूट खसोट और व्यभिचार की संस्कृतियों
का जो वर्चस्व छाया हुआ है वह भी शायद ही और कहीं हो। आस्था के नाम पर हमारे यहाँ लूट खसोट
करने वाले राम-रहीमों और आशारामों की कमी
नहीं लेकिन चीन में स्थिति इसके उलट है, देवी देवता और मिथक उनके भी हैं लेकिन
उसमें लिप्त व्यभिचार नहीं ।
स्वर्ग का मंदिर में लेखक ने लिखा है कि, ‘पेंइचिग का यह मंदिर हमारे
यहां जैसे महंथों और संतों से बचा हुआ है। यह वास्तव में प्राचीन है और इसे मूढ और
अंधविश्वासों की कृपा प्राप्त नहीं होती। यह एक विश्व धरोहर है।’ जगह-जगह पर लेखक ने स्थान व प्रसिद्ध
स्थलों के साथ जुड़ी ऐतिहासिक घटना का जिक्र किया है। ऐसी ही स्वर्ग का मंदिर परिसर के साथ जुड़ी एक घटना का
जिक्र करते हुये लिखा है कि,
‘द्वितीय अफीम युद्ध के दौरान इस मंदिर पर आंग्ल फ्रेंच सेनाओं ने अधिकार जमा लिया।
1905 ई. में उन्होंने इसका इस्तेमाल सेना के कमान स्थल के रूप में किया और इस प्रक्रिया
में मंदिर की खूबसूरत इमारतें क्षतिग्रस्त हो गईं और समूचा बाग तहस नहस हो गया।’
पढ़ने के लिए लिंक पर दस्तक दें- https://sahityikduniyaa.blogspot.com/2021/04/what-is-pratipadya-of-raidas-ke-pad.html
इसी तरह उन्होंने शीहुआतोंग(स्टोन फ्लावर केव) और बारहवीं सदी में सम्राट शिंयाग द्वारा निर्मित करवाये गये प्रसिद्ध लूग्वो छियाव(मार्कोपोलो ब्रिज) का वर्णन किया है। मार्को पोलो ब्रिज से जुड़ी एक मान्यता की चर्चा करते हुए लिखा है कि, '13वीं शताब्दी में प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो ने इस सेतु की इतनी तारीफ की कि इसकी प्रसिद्धि यूरोप में भी हो गई और इस सेतु को मार्कोपोलो के नाम समर्पित कर दिया गया।' प्राचीन समय से दोनों देशों के बीच आयात-निर्यात होने के कारण रहे हैं दोनों देशों की संस्कृतियों में बहुत साम्यता भी देखने को मिलती है। चीनी लोगों के द्वारा अपने पूर्वजों को याद करने वाले छिंग मिंग पर्व के बारे में लिखा है कि, 'छिंग मिंग वैसा ही पर्व है जैसे भारत में श्राद्ध पर्व या पितृ पक्ष। जिस तरह हम लोग साल में एक बार अपने पितरों या पूर्वजों को याद करते हैं वैसे ही चीन के लोग छिंग मिंग पर्व के दिन अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं।'
अर्थव्यवस्था
के क्षेत्र में चीन आज भले ही परचम लहरा रहा है लेकिन असमानता की गहरी खायीं वहाँ
भी मौजूद है।
चीन में भी भारत की तरह गरीबी पसरी हुयी है, दहेज जैसी गंभीर सामाजिक कुरीतियाँ वहाँ भी हैं लेकिन इन सबके बावजूद चीन में बेटियों
का महत्व कम नहीं, बल्कि बेटों से ज्यादा है क्यूकि वे शादी के उपरान्त अपने मां बाप के साथ ही
रहती हैं और बेटों को अपने ससुराल में जाकर रहना पड़ता है। इसलिये
चीन के लोग संतान के
रूप में लड़की की ज्यादा
इच्छा रखते हैं। भाग-दौड़ और सीमित परिवारों के रूप में तब्दील होती दुनिया में वहाँ बुजुर्गों का महत्व कम नहीं है, बुजुर्गों
की देखभाल में कोई कमी नहीं है, वे बेकार नहीं बल्कि अपनी इस उम्र का बेहद सर्जनात्मक
उपयोग करते हैं। इस पर टिप्पणी करते हुए अनिल राय ने लिखा है कि, ‘चीन में अधिकांश
पति पत्नि काम पर जाते हैं इसलिये बच्चों का लालन पालन तो उनके दादा दादी या नाना नानी
ही करते हैं। अब भी अधिकांश नौकरीपेशा चीनी दंपति अपने बच्चों के लालन पालन में बुजुर्गों
की सेवाएं लेते हैं अतः वे अपने माता पिता का भी उसी अनुपात में ध्यान रखते हैं।’
यह भी देखें- https://sahityikduniyaa.blogspot.com/2021/03/blog-post.html
‘विद्या के बाजार में’
लेखक की नजर में शिक्षा का हो रहा बाजारीकरण चिंता के केंद्र में है। बाजार ने सब कुछ
उपभोक्ता और उपयोगिता दृष्टि का बना दिया है। एक दौर में शिक्षा के क्षेत्र में जिस
बाजारवाद का विरोध किया जा रहा था, वहीं आज बाजरपरक शिक्षा पाने की होड़ मची है। इस
बदलाव पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा है कि, ‘विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षण संस्थान
कॉरपोरेट और पूंजीपतियों के बिग बाजार में परिवर्तित
होने की सतत प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। निजी विश्वविद्यालय और तकनीकी संस्थानों का
ऐसा संजाल फैल रहा है जो अमीर गरीब के भेद
को और गहराएगा। फिर जो ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ होगा वही सर्वाइव करेगा।’
लेखक ने पीकिंग विश्वविद्यालय की खूबसूरती, चीन में खाने की विविधता, चीन के राष्ट्रीय पुस्तकालयों, यातायात की सुविधा व फुटफाथ पर पसरी हुयी संस्कृति का अनोखा वर्णन किया है। एक तरफ उसकी नजर में जहां चीन में भीख मांग कर जीवन यापन करने वालें हैं, तो दूसरी तरफ चीनी नेता। ‘नेताओं का छाता’ के बहाने उन्होंने भारत के लोकतंत्र के साथ जकड़ी सामंतशाही व्यवस्था का शानदार चित्र प्रस्तुत किया है।
---शुभम यादव, शोध छात्र, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली मो; 9473930135
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