What is the pratipadya of raidas ke pad.

                            

                                       pratipadya of raidas ke pad


    मध्यकाल में वर्ण और जाति व्यवस्था अपने चरम पर थी। ईश्वर को ब्राह्मणों व काजियों ने अपना संगी बना लिया था। मुल्ला मौलवियों का कारोबार बढ चला था तथा समाज में विशेष वर्ण के लोगो का आतंक था। ऐसे समय में दलितों ने अपने संत पैदा किए। इन संतों ने हिंदू मुस्लिम धर्मों को आत्मसात कर उनमें फैली बुराइयों का कड़ा विरोध दर्ज किया। चौथीरम यादव ने लिखा है कि, ‘आक्सिमक नहीं है कि पूरे देश में रूढ़िवादी ब्राह्मणों द्वारा इन परिवर्तनकामी संतों-महत्माओं का उत्पीड़न किया गया जो जात-पांतऊंच-नीच और घृणा की सीमा तक फैली छुआछूत के भेदभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था को चुनौती दे रहे थे। अयोध्या में पल्टू दास को जिंदा जला दिया गया और महाराष्ट्र में एक ब्राह्मण पुरोहित ने तुकाराम की हत्या कर दी। दोनो समुदाय के कट्टरपंथियों ने कबीर का उत्पीड़न किया तो उच्च वर्णों से आने वाले तुलसीदास और मीराबाई भी यथास्थितिवादियों के कोप भाजन बने। तो फिर मीराबाई को दीक्षा देने वाले संत रैदास इस उत्पीड़न से कैसे बच सकते थे?’ संतों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था का जमकर विरोध किया और जिसका उन्हे खामियाजा भी भुगतना पड़ा। उदयदास,मीराबाई और झाली रानी को रैदास का शिष्य बताया जाता है। नाभादास ने भक्तमाल की टीका में उल्लेख किया है कि, ‘झाली रानी के रैदास की शिष्या बनने का समाचार पाते ही ब्राह्मणों के तन बदन में आग लग गई-संगहुंते विप्र सुनि छिप्र तन आग लगी।’ इन सबसे बेफिक्र रैदास ब्राह्मणवाद पर चोट करते रहे और अपनी कविताई से बेगमपुरा की परिकल्पना प्रस्तुत की।

रैदास की कविताओं में वर्ण जाति संप्रदाय का विरोधी स्वर कूट-कूट कर भरा हुआ है परन्तु रैदास के यहाँ कबीर जैसी अक्खड़ता व फक्कड़ता नहीं है। रैदास ने उस पूरी ब्राह्मण परंपरा का विरोध बहुत ही विनम्र स्वर में किया है। रैदास ने अपने समय की केंद्रीय समस्याओं को अपनी कविताओं में उठाया है। मध्य काल में वर्ण व्यवस्था पुरजोर तरीके से लागू थी और स्मृतियों में राजाओं को उसे पालन करने का स्पष्ट निर्देश दिया गया था। पूरा का पूरा समाज वर्ण व्यवस्था में बंधा हुआ थापरन्तु रैदास उसी समय ही मनु के सिद्धान्तों को चुनौती दे रहे थे। उन्होंने वर्ण एवं जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बटवारे को गलत बताया और कहा कि जब सब एक ही ईश्वर की संतान हैं तो उच्च और निम्न वर्ण में जन्म लेने से कोई ऊँच-नीच कैसे हो सकता है। उन्होंने कहा जब सबको बनाने वाला व पालने वाला एक ही है फिर मनुष्य-मनुष्य में असमानता किस बात की।

इसे देखें- https://sahityikduniyaa.blogspot.com/2021/03/blog-post.html

एकै माटी के सभे भांडेसभ का एकौ सिरजन हारा।

रैदास’ व्यापै एकौ घट भीतरसभ को एकै घड़ै कुम्हारा।।

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रैदास’ उपजइ सभ इक नूर तेब्राह्मन मुल्ला सेख।

सभ को करता एक हैसभ कूं एक ही पेख।।

रैदास ने समाज में फैली हुई इस जाति नामक घातक बीमारी को पहचान लिया था। वह जान चुके थे कि समाज में विभिन्न जातियों के अंदर जातियां फैली हुई हैं और वह एक दूसरे से उसी तरह गुंथी हुई हैं जैसे केले के पत्ते। वे जानते थे कि जाति व्यवस्था के रहते मनुष्य एक-दूसरे के निकट नहीं आ सकता मनुष्य और मनुष्य में भाईचारा कायम नहीं हो सकता। जब तक इस जाति नामक बीमारी को समाज से समाप्त न कर दिया जाए।

जात-जात में जात हैज्यों केलन के पात।

रैदास’ न मानुष जुड़ सकैजौं लौं जात न जात।।

मध्यकालीन समाज वर्णों का समाज था रैदास भी वर्ण से बाहर नहीं निकल पाए थे। परन्तु उन्होंने स्मृतियों में परिभाषित व उनके द्वारा समाज में संचालित वर्णों को परिभाषाएं जरूर बदली तथा वर्णों को जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर पुनर्परिभाषित किया। मनुस्मृति में क्षत्रिय उसे माना गया है जो राज्य की रक्षा करे व राज्य पर तथा राज्य में शासन करे। परन्तु रैदास उसे नकारते हैं व कहते हैं कि असली क्षत्रिय वो है जो दीन दबे कुचले लोगों के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दे वही शूरबीर है। वही सच्चा क्षत्रिय है-

दीन दुःखी के हेत जउवारै अपने प्रान।

रैदास’ उह नर सूर कौसांचा छत्री जान।।

मनुस्मृति में वैश्य उसे कहा गया है जो व्यापार और वाणिज्य का कार्य करता था परन्तु व्यापार में ठगी मुनाफा आदि तमाम निहित स्वार्थ जुड़े होते हैं। रैदास ऐसे स्वार्थियों को वैश्य नहीं मानते वे सब के सुख के लिए व्यापार करने वाले को वैश्य मानते हैं।

रैदास’ वैस सोई जानिएजउ सतकार कमाय।

पुन कमाई सदा लहै लोरै सर्वत सुखाय।।

मध्यकालीन सत्ता स्मृतियों से संचालित होती थी। हर कालखंड में तरह-तरह की स्मृतियां लिखी गई पर शूद्रों की स्थिति सब में कमोवेश वही थी। मनु के संविधान में शूद्रों को समाज का कलंक बताया गया है। परन्तु रैदास ने शूद्रों को सबसे पवित्र वर्ण के रूप में प्रतिष्ठित किया-

रैदास’ जउ अति अपवित्त हैसोइ सूदर जान।

जउ कुकरमी असुध जनतिन्ह ही सूदर मान।।

रैदास के समय में इस्लाम भारत में पूरी तरह अपनी जड़े जमा चुका था। काजी और पंडित अपना धार्मिक कारोबार कर रहे थे। लेकिन रैदास इस बात को पहचान रहे थे कि हिंदू और मुस्लिम के नाम पर भेदभाव करना खतरनाक है इसमें समाज कभी संगठित नहीं हो सकता। उन्होंने धर्म और ईश्वर के नाम पर लड़ने वालों को समझाया और स्पष्ट रूप से कहा कि राम रहीम कृष्ण करीम ईश्वर खुदा सब एक हैं केवल इनके नाम भिन्न-भिन्न हैं-

राधो क्रिस्न करीम हरिराम रहीम खुदाय।

रैदास’ मोरे मन बसहिं कहु खोजहुं बन जाय।।

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रैदास’ इक जगदीश करधरै अनन्तह नाम।

मोरे मन मंहि बसि रह्योअधमन पावन राम।।

----https://sahityikduniyaa.blogspot.com/2021/02/mahadeviver ma.html

रैदास जब धर्मों के ठेकेदारों को फटकारते हैं तो ऐसे समय में कभी-कभी उनके यहाँ करीबी स्वर भी दिखाई देता है। वे धर्म के ठेकेदारों (ब्राह्मणों व काजियों) को फटकारते हुए कहते हैं कि लोगों को ठगने के लिये तिलक और माला का झूठा प्रपंच क्यों रचा है। ईश्वर की प्राप्ति बिना सच्चे प्रेम के नहीं हो सकती है-

माथै तिलक हाथ जपमालाजग ठगने कूं स्वांग बनाया।

मारग छाड़ि कुमारग उहकैसांची प्रीत बिनु राम न पाया।।

रविदास कर्म करने पर जोर देते हैं तथा गीता के उस प्रसिद्ध ब्रह्म वाक्य कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन अर्थात् कर्म करते रहो फल की इच्छा न करो का जोरदार तरीके से खंडन करते हैं व कहते हैं कि कर्म में लगे रहिएकर्म ही मनुष्य का असली धन है पर फल ही आशा मत छोड़िए।

 

करम बन्धन मंह रमि रह्योफल कौ तज्यो न आस।

करम मनुष का धरम हैसत्त भाषैं ‘रैदास’।।

रैदास जिस राज्य का सपना देख और बुन रहे थे उस राज्य में ऊंच-नीच के स्तर का किसी के साथ कोई भेद भाव न होसभी के पास जीवन यापन के लिए अनाज हो तथा छोटे बड़े सभी एक साथ मिल जुलकर प्रसन्नता के साथ राज्य में निवास करें।

ऐसा चाहौं राज मैंजहाँ मिले सबन को अन्न।                                       

छोट बड़ो सभ सम बसैं, ‘रैदास’ रहे प्रसन्न।।

इस प्रकार रविदास भक्ति आंदोलन की प्रतिरोधी परंपरा के शीर्ष कवियों की अगली कड़ी में अपना स्थान रखते हैं। उन्होंने संत कवियों की तरह अपनी बातें प्रतिबद्धता के साथ कहीं हैंभले ही उनका स्वर अन्य संत कवियों की तरह तीव्र न हो। सर्व सुखदायी बेगमपुरा को लक्ष्य करके उन्होंने जाति-वर्णसम्प्रदाय के बरक्स मानवीय सरोकारों की बात कही है। अतः भक्ति आंदोलन की प्रतिरोधी और मानवता की पक्षधरता परंपरा से संबंधित कोई भी बात रैदास को छोड़कर नहीं की जा सकती।

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