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हिंसा और उन्माद के साये में लोकतंत्र

  हिंसा और उन्माद के साये में लोकतंत्र डॉ. शुभम यादव पीएच.डी., दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली shubhamyadavbhu2@gmail.com   पिछले कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति का काया पलट हुआ है। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की जो भूमिका होनी चाहिए वह खत्म हो गयी है। देश भर में अगर विपक्ष है तो शांत है और अगर उसने कुछ हरकत करनी चाही तो उसे शांत करा दिया जा रहा है। सत्ता की यह तानाशाही आप विपक्षी सांसदों के निलंबन में देख सकते हैं। लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ है , जैसा लोकतंत्र की जननी कहे जाने वाले देश की संसद ने मिसाल पेश की है। क्या सवालों से सत्ता इतनी डर गयी है कि वह सांसदों का निलंबन कर दे रही है ? क्या देश के मुद्दे संसद में उठाना गुनाह है ? यह बेहद चिंताजनक बात है कि लोकतांत्रिक भारत में धर्म और जाति के नाम पर कुछ समुदायों को निशाना बनाया जा रहा है। संसदीय लोकतंत्र में शायद भारत ही दुनिया का पहला देश होगा जहां एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी खुलेआम कहती है कि उसे मुसलमानों का वोट नहीं चाहिए। इसे सिर्फ यह कहकर नहीं छोड़ा जा सकता है कि राजनीति में धर्म का प्रवेश होगा तो यही होगा। आजादी

यह है तमाशा-ए-लोकतंत्र

  यह है तमाशा-ए-लोकतंत्र डॉ. शुभम यादव पीएच.डी., दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली shubhamyadavbhu2@gmail.com  लोकतंत्र जनता का जनता के लिए किया गया चुनाव है। लेकिन क्या वाकई लोकतंत्र में ऐसा कुछ बचा है ? कुछ वर्ष पहले अमेरिकी संसद में जो हुडदंग हुयी थी क्या यही लोकतंत्र की परिणति है ? पिछले कई वर्षों से जिस तरह पुतिन के राजनीतिक विरोधी इहलोक से परलोक गए हैं क्या वह स्वस्थ लोकतंत्र है ? मजाक तो यह है कि उत्तर कोरिया भी अपने को लोकतांत्रिक कहता है , जो अपने उलजलूल फैसलों के लिए विख्यात है। भारत में जो चल रहा है उसे स्वस्थ लोकतंत्र कहा जा सकता है ? विधायकों की खरीद फ़रोख्त कर चुनी हुयी सरकारों को गिरा देना क्या लोकतंत्र का हिस्सा है? आखिर क्या कारण है कि तमाम विपक्षी पार्टियों को चुनाव आयोग जैसी संस्था पर विश्वास नहीं ? जनता का एक बड़ा तबका भी विपक्ष की बातों से सहमती रखता है। उसकी भी नजरों में यह प्रक्रिया संदेहास्पद है। ऐसे में जब प्रक्रिया पर ही सवाल हों तो चुनाव पर सवालिया निशान रहेगा ही। ऐसे में चुनाव आयोग की निष्पक्षता का क्या होगा?   क्या लोकतंत्र में जनता के संदेहों को दूर करना

'हाथ तो उग ही आते हैं’: जातीय उत्पीड़न और संघर्ष को बयां करती हुयी कहानियाँ

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‘हाथ तो उग ही आते हैं’: जातीय उत्पीड़न और संघर्ष को बयां करती हुयी कहानियाँ शुभम यादव            दलित विमर्श ने हिंदी साहित्य को सिर्फ समृद्ध ही नहीं किया है अपितु उसका लोकतांत्रिकरण भी किया है। उसके केंद्र में यातना, पीड़ा और संघर्ष का दर्शन है, हाशिए पर पड़े उस व्यक्ति और समाज का सच है जिसे मानव मात्र होने से नकार दिया गया है। साहित्य में इस तरह के लेखन को यथार्थवाद के रूप में चिन्हित किया गया है। यथार्थवादी प्रवृति के इस उभार ने हमारी कुंद पड़ी चेतना में तोड़फोड़ की है और साहित्य को कल्पना लोक से निकालकर हमारे समय और सच से जोड़ा है। जाति, धर्म, लिंग, अर्थ आदि के आधार पर बढ़ता भेदभाव हमारे दौर की एक गंभीर समस्या है। श्यौराज सिहं ‘बेचैन’ का प्रकाशित कथा संग्रह ‘हाथ तो उग ही आते हैं’ इन समस्याओं से मुठभेड़ करता है। इस संग्रह में कुल नौं कहानियाँ संग्रहित हैं जो अलग अलग पृष्ठभूमि को अपने में समाहित किए हुए हैं। इस संग्रह की पहली कहानी ‘घूंघट हटा था क्या?’ दलित बालक बच्चू की गुलामी की कहानी तो है ही लेकिन यह सवर्ण स्त्री लाड़ो की भी कहानी है। बच्चू बालाधीन का नौकर है जो भोला सिंह की बेटी औ

गोधरा के हत्यारे

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  गोधरा के हत्यारे राना अय्यूब की पुस्तक ' गुजरात फ़ाइल्स ' प्रकाशित होने के बाद काफी चर्चा में रही थी | इसके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ लिखा गया , पुस्तक पर तमाम घटनाओं के तथ्य न देने के आरोप भी लगे | लेकिन इन सब आरोपों प्रत्यारोपों के बावजूद इस पुस्तक की महत्ता बरकरार है और तब तक बरकरार रहेगी जब तक गुजरात या उसके जैसे मॉडल की चर्चा होगी , जहां दंगे , मुठभेड़ , फर्जी एनकाउंटर सामन्य सी लगने वाली चीज हों , जहां राजनेता चरित्रहीन और लाशों के ढेर पर खड़ा हों | पुस्तक में राना अय्यूब ने अपने स्टिंग आपरेशन के जरिए यह बात प्रस्तुत की है कि कैसे गोधरा में हुए ट्रेन आगजनी के बाद मुसलमानों को एक विलेन के रूप में प्रस्तुत किया गया और हिंदुओं को कत्लेआम मचाने की छूट दी गयी , इस नरसंहार में रईसजादों से लेकर मध्यवर्गीय जीवन के लोग चढबढ़ के शामिल थे और दंगा फैलाने के लिए सत्ता का समर्थन हासिल था | जिसके चलते ही नरेन्द्र मोदी ने अपनी हिंदू ध्वज रक्षक की एक वैश्विक छवि गढ़ी | इन्हीं हत्याओं और नरसंहारों के दम पर यह आदमी पूरी दुनिया में चर्चा के केन्द्र में बना रहा | इस पुस्तक का फलक गोधर

चीन के समाज और संस्कृति का आख्यान

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चीन के समाज और संस्कृति का आख्यान वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहे चीन पर दुनिया भर की नजर है , दुनिया भर के बाजारों में उसके सामान छाए हुए हैं और तीसरी दुनिया के देश तो उससे भरे पड़े हैं। सस्ते दामों में सामानों को उपलब्ध कराने का चीनी विकल्प शायद ही अभी किसी और देश के पास उलब्ध हो ,   ऐसे में चीन को लेकर लोगों में बहुत अधिक जिज्ञासाएँ है , लोग उनकी धरोहरों , विकास और परंपरागत मूल्यों , रोजगार , शिक्षा , पर्यटन , परिवहन सुविधाओं , स्त्रियों की स्थिति आदि को जानने के लिए बेहद उत्सुक रहते हैं। इन विषयों को केंद्र में रखकर हिंदी के वरिष्ठ आलोचक अनिल राय ने कई महत्वपूर्ण संस्मरण लिखे हैं। जिनका संकलन ‘ माओ के देश में ’ नाम से प्रकाशित हुआ है। ‘ माओ के देश में ’ लेखक के ढ़ाई वर्षो के पीकिंग विश्वविद्यालय के प्रवास के दिनों की कहानी है। जिसमें उन्होंने चीन के अलग बिंदुओं पर विचार किया है। ढ़ा ई वर्ष किसी भी देश की संस्कृति, परंपरा और उस पूरे समाज को समझने के लिए तो बहुत कम है, फिर भी लेखक ने उस समाज की संस्कृति, परंपरा और प्रसिद्ध स्थलों के ऐतिहासिक महत्व के साथ साथ भारत की स्थितियों से तुलना

What is the pratipadya of raidas ke pad.

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                                                                    pratipadya of raidas ke pad      मध्यकाल में वर्ण और जाति व्यवस्था अपने चरम पर थी। ईश्वर को ब्राह्मणों व काजियों ने अपना संगी बना लिया था। मुल्ला मौलवियों का कारोबार बढ चला था तथा समाज में विशेष वर्ण के लोगो का आतंक था। ऐसे समय में दलितों ने अपने संत पैदा किए। इन संतों ने हिंदू मुस्लिम धर्मों को आत्मसात कर उनमें फैली बुराइयों का कड़ा विरोध दर्ज किया। चौथीरम यादव ने लिखा है कि , ‘ आक्सिमक नहीं है कि पूरे देश में रूढ़िवादी ब्राह्मणों द्वारा इन परिवर्तनकामी संतों-महत्माओं का उत्पीड़न किया गया जो जात-पांत ,  ऊंच-नीच और घृणा की सीमा तक फैली छुआछूत के भेदभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था को चुनौती दे रहे थे। अयोध्या में पल्टू दास को जिंदा जला दिया गया और महाराष्ट्र में एक ब्राह्मण पुरोहित ने तुकाराम की हत्या कर दी। दोनो समुदाय के कट्टरपंथियों ने कबीर का उत्पीड़न किया तो उच्च वर्णों से आने वाले तुलसीदास और मीराबाई भी यथास्थितिवादियों के कोप भाजन बने। तो फिर मीराबाई को दीक्षा देने वाले संत रैदास इस उत्पीड़न से कैसे बच सकते थे ?’  संतों ने