‘श्रृंखला की कड़ियाँ’: स्त्री-मुक्ति का दस्तावेज

 



श्रृंखला की कड़ियाँ’: स्त्री-मुक्ति का दस्तावेज

                                                                                                                                                                                                                              शुभम यादव


                                              

दुनिया के इतिहास में देखें तो एक विशेष बात यह दिखायी देती है कि स्त्रियों के बारे में अधिकांश नियम-कानून पुरुषों द्वारा ही बनाये गये हैंजबकि सामाजिक निर्माण की भूमिका में पूरी सक्रिय भागीदारी के बावजूद वे निर्णय लेने से दूर रहीं व दोयम दर्जे की नागरिक बनी रहीं। भारतीय समाज के मूल में ये चीजें गहरी समायी हुयी हैं। पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री को रमणीवामादेवी आदि माना है पर उसे कभी स्वतंत्र मनुष्य मानकर फलने-फूलने नहीं दिया बल्कि ऐसा अगर हुआ भी तो उसके साथ पौराणिक मान्यतायें जोड़ दैवीय घटना सिद्ध करने की कोशिश की गई। राजेन्द्र यादव ने भारतीय समाज की स्त्रियों के बारे लिखा है कि ‘मूलतः इस समाज में स्त्री की न अपनी कोई जाति हैन नाम और न अपनी इच्छाहर जाति या नस्ल ने एक दूसरे की स्त्रियों को लूटा है। छीना या अपनाया है। वह आजन्म किसी की बेटीकिसी की पत्नी और किसी की माँ के रूप में जानी जाती है उसी से उसके पद और प्रतिष्ठा बनते हैं। यहाँ तक कि पर्दे के नाम पर उसका चेहरा भी उससे छीन लिया गया है। वह सिर्फ एक बेनामबेचेहरा और बेपहचान औरत है।

पुरुष सत्ता ने भारतीय समाज का निर्माण इसी तरह किया है। औरतों के बारे में नीत्शे का यह वाक्य कैसे भूला जा सकता है कि ‘औरत की हर चीज एक गुत्थी और पहेली हैऔरत के सौ मर्जों का सिर्फ एक ही इलाज है और वह है उसे गर्भवती कर डालना।’ अभी भी पुरुष वर्ग औरत को रहस्य के रूप में ही देखता है। असल में वह औरत को दो रूपों में देखता है, ‘पहला देवी और दूसरा कामकन्दरा के रूप में।’ इसलिए आज तक उसके बारे में पुरुष के मन में भ्रम बना हुआ हैभ्रम क्या यह उसके लिए अब सार्वभौम सत्य बन चुका हैक्योंकि इसकी पुष्टि करने के लिए उसके पास अपने ही द्वारा बनायी गयी आचार-संहितायेंवेदपुराणस्मृतियाँनीतियाँ इत्यादि हैंजिसकी बदौलत उसने आज तक का सफर तय कर लिया है। स्त्री के पास क्या है सिवाय सुनने और मानने के। परन्तु समाज में परस्पर विरोधी शक्तियाँ होती है अगर न हो तो सामाजिक विकास की गति अवरूद्ध हो जायेगी। स्वाभाविक है कि पुरुष सत्ता से विद्रोह करने वाली कुछ स्त्रियाँ समाज में रही हैं उसी विद्रोह के डर से पुरुषों ने इतने नियम बना डाले। नवजागरण के साथ स्त्री भी कुछ नये रूप में सामने आयी। उसने अपने अधिकारों की बात की व स्त्री जागरूकता का अभियान चलाया। इनमें सावित्रीबाई फूलेक्रांतिकारी महिला ताराबाई शिन्देसीमंतनी उपदेश की लेखिका अज्ञात हिंदू महिला आदि रहीं हैं। इसी नवजागरण की पृष्ठभूमि की उपज हैं विद्रोही कवयित्री-लेखिका महादेवी वर्मा। हमनें उनकी तुलना मीरा से की लेकिन दुःख और विरह की मीरा तक ही उन्हें समेट दिया।हमनें उन्हें कभी विद्रोहिणी मीरा के रूप में नहीं देखा जो राणा को चुनौती देती है। ऐसा इसलिए है कि हमने सदियों से स्त्री को मनुष्य के बजाय एक वस्तु के रूप में देखा हैजो विरोध और चिंतन नहीं कर सकती। इसलिए हमने उसे उपेक्षित ही रखा लेकिन; ‘‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ की लेखिका भारतीय स्त्री समुदाय की आवयविक बुद्धिजीवी के रूप में हमारे सामने आती हैं। उसके विचारों के निर्माण में भारतीय स्त्री समुदाय के अतीत और वर्तमान स्त्री-जीवन की कठोर वास्तविकताओं के गंभीर ज्ञानजटिल स्थितियों की अचूक पहचान और लेखिका के अपने व्यापक जीवनानुभवों की महत्वपूर्ण भूमिका है। साथ ही उसमें भारतीय स्त्री की आर्थिकसामाजिक और सांस्कृतिक पराधीनता से मुक्ति की गहरी चिंता है।

महादेवी ने स्त्री को उसकी शक्ति का एहसास कराने का कार्य कियाउन्हें यह पता था कि अधिकार माँगे नहीं छीने जाते हैंवे जानती हैं कि स्वाधीनता याचना और भिक्षाटन से नहीं प्राप्त होगी वे लिखती हैं कि ‘भारतीय नारी भी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राणप्रवेग से जाग सके उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए सम्भव नहीं। उसके अधिकारों के सम्बन्ध में यह सत्य है कि-वे भिक्षावृति से न मिले है न मिलेगें क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है।’ महादेवी एक बेहतर समाज की संकल्पना के लिए समाज के पितृसत्तात्मक ढाँचे को तोड़ने व स्त्री की तमाम वैधानिक संस्थाओं में भागीदारी सुनिश्चित करने की बात करती है। वे कहती हैं कि ‘शासन व्यवस्था में भी उन्हें स्थान न मिलने से आधा नागरिक समाज प्रतिनिधि-हीन रह जायेगाकारण अपने स्वत्वों के रूप तथा आवश्यकताओं से स्त्रियाँ जितनी परिचित हो सकती है उतने पुरुष नहीं। परन्तु स्थान मिलने का यह अर्थ नहीं है कि उन्हें केवल पुरुष परिषदों को अलंकृत करने के लिए रखा जाय। वास्तव में उनका पर्याप्त संख्या में रहकर अपनी अन्य बहिनों के हित-अनहित-विषयक अस्पष्ट विचारों को स्पष्ट करना और उन्हें क्रियात्मक रूप-रेखा देना ही समाज के लिए हितकर सिद्ध हो सकेगा।’ महादेवी ने स्त्री चिंतन के साथ.साथ पुरुष की सोच को भी उद्घाटित करने का प्रयास किया है, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद का उद्धरण देखने लायक है। ‘याज्ञवल्क्य अपनी विदुषी सहधर्मिणी मैत्रेयी को सब कुछ देकर वन जाने को प्रस्तुत होते हैं। परन्तु पत्नी वैभव का उपहास करती हुई पूछती है- यदि ऐश्वर्य से भरी सारी पृथ्वी मुझे मिल जाय तो क्या मैं अमर हो सकूँगी?’ याज्ञवल्क्य के लिए भौतिक सम्पति ही सब कुछ हैपरन्तु मैत्रेयी जीवन के प्रति कितनी गम्भीर हैउसकी बातें विचारने योग्य हैं। इसी तरह महादेवी ने सीतायशोधरा व महाभारत काल की तमाम स्त्रियों को केन्द्र में रखा है। महादेवी स्त्रियों को अंधानुसरण न करने के लिए सचेत करती हैं और बताती हैं कि, ‘दर्पण का उपयोग तभी तक है जब तक वह किसी दूसरे की आकृति को अपने हृदय में प्रतिबिम्बित करता रहा हैअन्यथा लोग उसे निरर्थक जानकर फेंक देते हैं। पुरुष के अंधानुसरण ने स्त्री के व्यक्तित्व को अपना दर्पण बनाकर उसकी उपयोगिता तो सीमित कर ही दीसाथ ही समाज को अपूर्ण बना दिया।

युद्ध और नारी’ निबंध में वे स्त्री के गृह परिवेश साथ ही साथ युद्ध व सैनिक की दृष्टि में स्त्री की भूमिका क्या हैपर विचार करती हैं। महादेवी को लगता है कि स्त्रियों ने अपने को घरों मे कैद कर लिया है। घर ही उसके लिए जीवन हैउसके लिए गृह का उजड़ना सम्पूर्ण सुख का उजड़ना है पर पुरुष के लिए नहीं। स्त्रियों के जीवन से घर किसी भी प्रकार से भिन्न नहींयुद्ध स्त्रियों के विकास में भी बाधक है। युद्ध में जाने वाला व्यक्ति जिसके जीवन में कल की आशा नहीं जो मरने या मारने पर ही खड़ा है उसके लिए स्त्री के त्यागप्रेमतपस्या आदि गुणों का क्या महत्व हैवह सिर्फ और सिर्फ स्त्री को एक भोग के नजरिये से ही देखेगा। वे लिखती हैं कि, ‘सबेरे तलवार के घाट उतरने और उतारने वालावीरस्त्री की रूप-मदिरा का केवल एक घूँट चाह सकता है। वह उसके दिव्य गुणों का मूल्य आँकने का समय कहाँ पावे और यदि पा भी सके तो उन्हें कितने क्षण पास रख सकेगा।

नारीत्व और अभिशाप’ में महोदवी हिन्दू पितृसत्ता व वर्चस्ववादी प्रवृत्ति पर लिखती हैं कि, ‘अपने पितृगृह में  उसे वैसा ही स्थान मिलता है जैसा किसी दुकान में उस वस्तु को प्राप्त होता है जिसके रखने और बेचने दोनों ही में दुकानदार को हानी की सम्भावना रहती है।’ इस पर गौर करे तो सामन्ती समाज का स्त्रियों के प्रति रवैया तार-तार होता नजर आता हैक्योंकि सामन्ती समाज स्त्रियों को वस्तु से अधिक मान्यता नहीं दे सका है। उसकी सोच स्त्री के शरीर के इर्द-गिर्द अभी भी घूम रही है। वे रूढ़िवाद के समर्थकों व धर्मों के ठेकेदारों कोजो नये परिवर्तन को धर्म और समाज के लिए घातक समझ लेते हैंउन्हें स्त्री की इस दशा का सबसे बड़ा कारण मानती हैं। वह स्त्रियों के सदियों से होने वाले दलन को केन्द्र में रखकर लिखती हैं कि, ‘युगों की कठोर यातना और निर्मम दासत्व ने स्त्रियों को अपनापन भी भूला देने पर विवश न किया होता तो क्या आज ये अपने सम्मान की रक्षा में समर्थ न हो सकती थीं?’ यह वाक्य उन तर्कधारियों के ऊपर तमाचा हैं जो बार-बार ये कहते हैं कि स्त्री स्वयं क्यों नहीं स्वतन्त्र हो जातीस्वयं सुरक्षा क्यों नहीं करतीउसे कौन रोक रखा है?

महादेवी पुरुषों की उस सामंती सोच को उद्घाटित करने का प्रयास करती हैंजो स्त्री को पत्नी व देवी बनाकर रखना चाहता है। इसलिए वह पुरुषों से सदियों से चली आती हुई उस सोच को बदलने का आग्रह करती हैं। जो स्त्री को सिर्फ और सिर्फ पत्नीमाता तक सीमित करती है, ‘वास्तव में स्त्री केवल पत्नी के रूप में समाज का अंग नहीं है। अतः उसे उसके भिन्न-भिन्न रूपों में व्यापक तथा सामान्य गुणों द्वारा ही समझना समाज के लिए आवश्यक तथा उचित है।’ उन्होंने आज के पारिवारिक सम्बन्धों के बीच पैदा हुए उन मानसिक विकारों पर भी विचार किया है, ‘एक संकीर्ण सीमा में निकट रहते हुए भी पिता-पुत्रीभाई-बहिन अपने चारों ओर मिथ्या संकोच की ऐसी दृढ़ भित्ति खड़ी कर लेते हैं जिसे पार कर दूसरे के निकट पहुँच पानाउनकी विभिन्नतामयी प्रकृति को समझ लेना असम्भव हो जाता है।

आज बाजार ने स्त्री को स्वतंत्रता जरूर दी है पर उसे आकर्षण का केन्द्र भी बनाया है। वे स्त्री को आकर्षण का केन्द्र नहीं बनने देना चाहती हैं। उन्होंने स्त्री के उच्छृंखल व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि, ‘वह जीवन की गम्भीरता से दूर उच्छृंखल तितली के रूप में घर से बाहर आती है और प्रायः दूसरों के आकर्षण का केन्द्र बनना बुरा नहीं समझती।’ इसके साथ वे सचेत करती हैं कि स्त्रियाँ संसार के सभी पुरुषों को एक ही दृष्टि से न देखे व एक ही धारणा न बना लें कि पुरुष उन्हें कुदृष्टि से देखते हैं। वे स्त्री को स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में देखने का आग्रह करती हैं तथा स्त्री को कुछ क्षेत्रों में स्वायत्तता प्रदान करने की बात करती हैं,  ‘उसे आने जाने कीअन्य व्यक्तियों से मिलने जुलने की तथा उसी क्षेत्र में कार्य करने वालों से सहयोग लेने-देने की आवश्यकतायें प्रायः पड़ती रहेंगी। ऐसी दशा में पुरुष यदि उदार न हुआ और प्रत्येक कार्य को उसने संकीर्ण संदिग्ध दृष्टि से देखा तो जीवन असहाय हो उठेगा।

किन्तु हम आज भी स्त्रियों के प्रति शिक्षा को लेकर उदासीन हैंआज भी कन्या जन्म को लेकर समाज में हाहाकार मचा हुआ है। पुरुष सत्तात्मक समाज वासनाओं की पूर्ति के लिए स्त्री की उपयोगिता को समझ लेता है पर पुत्री की भूमिका उसे रास नहीं आ रहीवह उसके प्रति शून्यचेता है। ऐसे दौर में ‘श्रृंखला की कड़िया’ हमारे समाज के लिए एक बेहतर और उपयोगी दस्तावेज हो सकती है जो स्त्री की मुक्तिकामी चेतना से भरी हुई है। जिसके केंद्र में समता और समानता जैसे मूल्य हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महादेवी वर्मा का चिंतन स्त्री को संगिनी के रूप में देखता है ऐसी संगिनी जो अपने पति की छाया मात्र न होकर बराबर की अधिकारिणी हो वे स्त्री के स्वतंत्रता में बाधा बनी हुई रुढ़ियों एवं मान्यताओं का तार्किक प्रतिपक्ष रखती है और इनसे पार पाने व स्त्री मुक्ति के द्वार तक पहुँचने हेतु उपाय सुझाती हैं। ये उपाय शिक्षाआर्थिक बराबरी और निर्णय की स्वतंत्र आदि हैं। महादेवी के ये विचार आज भी पुराने नहीं पड़े हैं बल्कि स्त्री स्वातंत्र्य की कुंजी बने हुए हैं।

                                                                                                                           

                                                                                                                                                                                                                                                                

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