राजेंद्र यादव: आदमी की निगाह में औरत

 

               


राजेंद्र यादव: आदमी की निगाह में औरत

         

                                               शुभम यादव

                                                     

          दुनिया के अधिकांश तथाकथित सभ्य समाजों में स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। जबकि मानव के विकास व सभ्यता के निर्माण में उसकी भागीदारी कहीं से कमतर नहीं है। शारीरिक संरचना, गर्भधारण करना जो कि उसकी सबसे बड़ी देन है। जिसके कारण उसका शरीर कमजोर हो जाता है, उसका जीवन एक जगह स्थिर रहने की माँग करता है। इसी का बहाना बनाकर पुरूषों ने उसे घरों में कैद कर दिया व बाहरी नेतृत्व करने शासन करने आदि क्षेत्रों में उसने शासन सत्ता  खुद अख्तियार कर ली तथा नीति नियामक संस्थायें, सत्ता, धर्म और कानून आदि के निर्माण का दायित्व अपने हाथों में ले लिया। पुरूषों ने अच्छी स्त्री, खराब स्त्री, प्रतिष्ठित स्त्री, अप्रतिष्ठित स्त्री, मान्य स्त्री, अमान्य स्त्री, सभ्य स्त्री, असभ्य स्त्री आदि अनेक संहितायें लिखी। अनेक शास्त्रों व वेदों का निर्माण कर उनकी सामाजिक गतिविधियों को निर्धारित किया। स्त्री इसी संहिताओं में फंसी रही व सदियों से पुरूष की अनुचरी बनी रही।

          दुनिया के तमाम बौद्धिक विचारकों ने इसे अपनी दृष्टि से देखा है। राजेन्द्र यादव ने आदमी की निगाह में औरत क्या है। इसे देखने की कोशिश भारतीय परिप्रेक्ष्य में की है।

          इस पुस्तक में राजेन्द्र यादव मनोवैज्ञानिक तरीके से पुरुष दृष्टि की जाँच-पड़ताल करते हैं व समय-समय पर चीड़-फाड़ भी। ऐसे समय में बहुत सी बातें सीधी न कहकर अन्य संकेतों के माध्यम से कही जाती हैं, इसलिए लेखक ने भूमिका में जो आग्रह किया है उसे ध्यान में रखना जरुरी है, भाषा को अभिधा तक ही समझने वाले मित्रों से अनुरोध है कि दूसरों की कुछ अस्वीकार भावनाओं को जब हम अपनी तरह उद्धृत करते हैं तो वंहा व्यंग्य और व्यंजना ही मुख्य होते हैं।’ लेखक इसका सहारा लेकर बहुत सी जगहों पर पुरुष सत्ता के चेहरे को बेनकाब करने की कोशिश की है। असल में वह भी एक पुरुष है इसलिए उसे आसानी से इस क्षेत्र में प्रवेश करने की स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है।

          वह समाज में स्त्री की स्थिति का जायजा लेते हुए लिखते हैं कि, ‘मूलतः इस समाज में स्त्री की न कोई जाति है नाम न अपनी इच्छा। हर जाति या नस्ल ने एक दूसरे की स्त्रियों को लूटा-छीना या अपनाया है। वह आजन्म किसी की बेटी किसी की पत्नी और किसी की माँ के रुप में जानी जाती है उसी से उसके पद और प्रतिष्ठा बनते हैं।’ यह सब सामन्ती विचार हैं। समाज में फैले हुए इन सब सामन्ती विचारों को पुरूष तोड़ना नहीं चाहता है और न ही उसे बर्दाश्त है की कोई इसे तोड़े। वह इन संबंधों को अपना संरक्षण जबरन देता है। सामन्ती समाज ने स्त्री को सिर्फ तीन नाम दिये हैं, पत्नी, रखैल और वेश्या इसके अलावा वह किसी चौथे संबंध को स्वीकार नही करता।’

          लेखक के यहाँ सामन्ती शब्द स्मृतियों में बसे कोई राजसी-ठाठ-बाँट का मामला नहीं है। वह एक सोच है जो स्त्रियों के प्रति पुरुषों की सदियों से निर्मित हुयी है। इस सामन्ती समाज का अंग वह हर व्यक्ति हो सकता है, जो स्त्रियों को सिर्फ और सिर्फ अपने लिये उपयोग करता है। वह स्त्री के कुल्हे, नितम्बों, जाघों, छातियों को देखकर खुश होता है। उन पर फब्तियाँ कसता है व उनसे छेड़छाड़ करता है। पुरुषों ने स्त्री के सेक्स को लेकर जो धारणा बना ली है उसका खुलासा लेखक इन शब्दों में करता है, ‘सामाजिक आचार संहिताओं, यानी मनु और याज्ञवलक्य स्मृतियों से लेकर व्यक्तिगत कामसूत्र तक औरत को बाँधने और जीतने की कलाएँ हैं एक भी नुस्खा औरत की काम शक्ति बढ़ाने के लिए नही है न उसके लिए काम सूत्र है।’

          वह इसे आगे और स्पष्ट करता है कि, ‘तुम्हारा सामना करने के लिए हमें दुनिया-भर के कुश्ते, शिलाजीत जिनसेन और वियाग्रा खाने पड़ते है- ड्रगों और शराबों से शक्ति खींचनी पड़ती है। डंड़ों और घरेलू कारागारों का इस्तेमाल करना होता है।’ पुरुषों ने स्त्री को अधिक कामुक मान रखा है और वह इस संदर्भ में जटाधारी ब्राह्मण की आठ गुनी वाली स्त्री नीति को दुहराता है और स्त्री की काम वासना को कुचलने के लिए तमाम घरेलू से लेकर बाजारु उपचार करता है। सदियों के ये जड़ संस्कार इक्कीसवीं सदी में और फल-फूल रहे हैं। इनका प्रचार-प्रसार और धड़ल्ले से हो रहा है।

          भारतीय समाज की संरचना बड़ी जटिल है। यहाँ वर्ण व्यवस्था बहुत गहरे समाई है परन्तु स्त्री का मामला कुछ डगमग है, भारतीय समाज में न नारी का अपना कोई व्यक्तित्व रहा है न जाति। वह ऐसा रत्न है जिसे कहीं से भी उठाया जा सकता है। और जिसके पास है उसी की सम्पत्ति है। वे व्यक्ति नहीं चीज हैं जिन्हें लूटा, छीना और नष्ट किया जा सकता है, खरीदा और बेचा जा सकता है।’ जिसने चाहा उसे धन बल से आख्तियार कर लिया और वह न चाहते हुए भी उसमें शामिल हो गई। बस उसका शारीरिक ढाँचा फिट होना चाहिए। ताकि वह उसका मनोरंजन कर सके। क्या लोक में प्रसिद्ध आल्हा, ऊदल, पद्मिनी, आदि की कहानियाँ इनसे भिन्न है। बस खूबसूरत स्त्री देखी की उसे पाने के लिए चढ़ दौड़े। स्त्री की न कोई जाती है न धर्म, सिर्फ और सिर्फ उसके सौंदर्य की गाथाएँ प्रचलित हैं।

          राजेन्द्र यादव स्त्री को व्यापक दायरे में देखते हैं और स्त्री को भी दलित मानते हैं। क्योंकि जिस तरह दलित घर में जन्म लेना किसी दलित व्यक्ति का चुनाव नही उसी तरह किसी स्त्री का रूप व कुरुप होना अपना चुनाव नहीं फिर भी वह इन सबकी दोषी ठहरा दी जाती है। उन्होने लिखा है कि, इस समाज में औरत को हमेशा उन्हीं अपराधों की सजा दी गयी है जिनकी जिम्मेदार वह खुद नहीं है सौन्दर्यशील भंग और अवैध गर्भधारण या जायज गर्भाधारण में भी पुत्री की माँ होना’

          लेखक आगे सभ्य समाज की विशिष्ट समझे जाने वाली स्त्रियों पर भी दृष्टि फेरता है ‘अपने मन की करने या मालिक के इशारे पे न चलने वाली सवर्ण या धनी औरत भी उसी तरह पिटती, सम्पत्ति से वंचित होती, घर से निकाली, दहेज में जलाई या प्रताड़ित होती है जैसे कल्लू हरिजन की औरत ....अपने स्तर पर उसका भी वही यौन शोषण होता है जो किसी भी वर्ग और धर्म की औरत का होता है।’ दलितों से व दलित स्त्रियों से अपने को अलग मानने वाली, वर्ण व्यवस्था और धर्म के अंदर मुक्ति खोजने वाली स्त्रियाँ वस्तुतः पुरुषों के बनाये जाल का शिकार है। उन्हें यह नहीं पता कि उनकी यह स्वायत्ता तभी तक है जब तक पुरुषों का कोई नुकसान नहीं। जैसे ही वे स्वतंत्र तरीके से निर्णय लेने, पृतिसत्ता के ढ़ाचे को तोड़ने की वकालत करती हैं वैसे ही उनके पर कुचल दिये जाते हैं। मधुमती देवी, भवरी देवी काण्ड क्या इससे अलग हैं।

धर्म और संस्कृति का स्तूप जो स्त्री की मर्यादा को लेकर खड़ा किया गया है लेखक उसे उजागर करता है व संघ की संस्कृति पर हमला भी, ‘हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सारा दारोमदार तुम्हारी उन्हीं मर्यादाओं की रक्षा करना है जो हमारे ऋषि मुनियों ने तुम्हारे लिए निर्धारित की थीं। नैतिकता, अनैतिकता, श्लील,-अश्लील चरित्र-धर्म सभी के केन्द्र में तो तुम हो।

          वह और आगे इस सांस्कृतिक पुरुष मर्यादा के विकृतम रुप को स्पष्ट करता है, दूसरों की जूठी या उपभोग की हुई औरत हमारे किसी काम की नहीं। यह धर्म है और धर्म उसी का रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करते हैं। इसी धर्म की रक्षा के लिए हम दुश्मनों की इज्जत लूटते हैं उनकी औरतों के चिथड़े-फाड़ते हैं, उनकी हत्याएँ करते हैं।....इसलिए हमने तुम्हें सती कहकर जलाया है, जौहरों में झोंका है ताकि हमारे बाद कोई दूसरा तुम्हारा उपयोग न कर सके।’ इक्सवीं सदी में भी ये मर्दवादी संस्कृतियाँ अपने चरम पर है, ऐसी घटनाऐं समाज में प्रतिदिन हो रही हैं। पितृसत्ता ने स्त्री को दुर्गा, सती, लक्ष्मी आदि रूपों से नवाज कर स्त्री को छला है। इन सबके माध्यम से वह उदात्त चरित्र स्थापित करता है व ऐसा करने की स्त्रियों को हिदायत देता है व पतिव्रता को इन सबसे ऊचा दर्जा देता है। ‘हमने तुम्हारे सती सुहागन रुप को बड़े से बड़े भगवान के ऊपर बैठाया है’ लेकिन जैसे ही उसके द्वारा खीची गयी लक्ष्मण रेखा को स्त्री पार करती है तत्काल वह इन सब रुपों की धज्जियाँ उड़ा देता है वह स्त्री को गालियों से नवाजता है और अपनी धाक जमाता है। ‘गालियों से भी हमने तुम्हें मारा है। जो भाषा हम तुम्हारे लिये इस्तेमाल करते है, उसे कभी सुना है? वह सिर्फ तुम्हारी देह और देह संबंधी बखियाँ उधेड़ती है, या तो तुम्हारी योनि और वासना को धिक्कारती है।

          राजेन्द्र यादव ने बहुत ही सूक्ष्म तरीके से पितृसत्ता के बनाये हुये जाल को हमारे सामने रखने की कोशिश की है। लेखक के पुरुष होने के नाते उसे इस कार्य में और अधिक सफलता मिली है। वह उस परिवेश में आता जाता रहा है और बड़ी ही निष्पक्षता से उसने पुरुष दृष्टि को हमारे सामने रखा है। लेखक की यह ईमानदारी भी है कि वह स्वयं को भी इस पुरूष सत्तात्मक समाज में रखकर स्त्रियों को देखता है। यही साफ़गोई राजेंद्र यादव को अन्य लेखकों व सम्पादकों से अलगाती है।

 

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