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'हाथ तो उग ही आते हैं’: जातीय उत्पीड़न और संघर्ष को बयां करती हुयी कहानियाँ

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‘हाथ तो उग ही आते हैं’: जातीय उत्पीड़न और संघर्ष को बयां करती हुयी कहानियाँ शुभम यादव            दलित विमर्श ने हिंदी साहित्य को सिर्फ समृद्ध ही नहीं किया है अपितु उसका लोकतांत्रिकरण भी किया है। उसके केंद्र में यातना, पीड़ा और संघर्ष का दर्शन है, हाशिए पर पड़े उस व्यक्ति और समाज का सच है जिसे मानव मात्र होने से नकार दिया गया है। साहित्य में इस तरह के लेखन को यथार्थवाद के रूप में चिन्हित किया गया है। यथार्थवादी प्रवृति के इस उभार ने हमारी कुंद पड़ी चेतना में तोड़फोड़ की है और साहित्य को कल्पना लोक से निकालकर हमारे समय और सच से जोड़ा है। जाति, धर्म, लिंग, अर्थ आदि के आधार पर बढ़ता भेदभाव हमारे दौर की एक गंभीर समस्या है। श्यौराज सिहं ‘बेचैन’ का प्रकाशित कथा संग्रह ‘हाथ तो उग ही आते हैं’ इन समस्याओं से मुठभेड़ करता है। इस संग्रह में कुल नौं कहानियाँ संग्रहित हैं जो अलग अलग पृष्ठभूमि को अपने में समाहित किए हुए हैं। इस संग्रह की पहली कहानी ‘घूंघट हटा था क्या?’ दलित बालक बच्चू की गुलामी की कहानी तो है ही लेकिन यह सवर्ण स्त्री लाड़ो की भी कहानी है। बच्चू बालाधीन का नौकर है जो भोला सिंह की बेटी औ